Tulasi Vanam
This entry is part 10 of 17 in the series Niti Chalisa

विशेषेण च वक्ष्यामि चातुर्वर्ण्यस्य लिङ्गतः । पञ्चभूतशरीराणां सर्वेषां सदृशात्मनाम् ।। लोकधर्मे च धर्मे च विशेषकरणं कृतम् । यथैकत्वं पुनर्यान्ति प्राणिनस्तत्र विस्तरः।। (महाभारत, अनुशासनपर्व १६४.११,१२)

यद्यपि सबके शरीर पञ्चभौतिक हैं और सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा भी सर्वप्राणियोंमें सदृश ही है; तथापि समस्त भेदभूमियोंका सदुपयोग करता हुआ अनात्मवस्तुओंसे विविक्त और सर्वाधिष्ठानभूत आत्मा में व्यक्ति मन समाहित कर सके, तदर्थ बल और वेगका समुचित आधान वेदादि शास्त्रसम्मत वर्णाश्रमोचित भेद को स्वीकार किये बिना सम्भव नहीं है। इस तथ्य का वैदिक वाङ्मय में विस्तारपूर्वक वर्णन है।।

ध्यान रहे; तत्त्वदर्शी महर्षियों और मुनियों द्वारा दृष्ट और प्रयुक्त कृषि, अग्निहोत्रादि लौकिक तथा पारलौकिक उत्कर्षक साधनोंको परिष्कृत और क्रियान्वित करनेमें हम अवश्य ही अधिकृत हैं; परन्तु शिक्षा, रक्षा, कृषि, भवन, वाणिज्य, सेवा, यज्ञ, दान, तप, व्रत तथा देवार्चनादिसे सम्बद्ध सनातन विज्ञानका परित्याग कर नवीन उद्भावना और प्रयोगका आलम्बन लेने पर विकास के स्थानपर विनाश का पथ ही प्रशस्त कर सकते हैं। उन प्राचीन वैदिक महर्षियोंके बताये हुए उपायोंका इस समय भी जो श्रद्धापूर्वक भलीभाँति आचरण करता है, वह सुगमतासे अभीष्ट फल प्राप्त कर लेता है। परन्तु जो अज्ञ उनका अनादर करके अपने मनः कल्पित उपायोंका आश्रय लेता है, उसके सब उपाय और प्रयत्न पुनः पुनः निष्फल होते हैं। अत एव सनातन वैदिक आर्यपरम्पराप्राप्त कृषि, जलसंसाधन, भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय, विवाहादि का देश, काल, परिस्थितिके अनुरूप बोध और क्रियान्वयनका प्रक्रम ही सर्वहितप्रद और सुखप्रद है।

Essence

Although everyone’s body are the same, material wise [panchabhutas], and the soul in the form of Sachchidanand is also the same in all living beings; however, by making good use of all existing differences, a person can focus his mind on the Supreme Soul (Atman) which is separate from non-Self objects (asat) and is omnipresent. One cannot get the proper strength and power (reference to spiritual progress) without accepting the distinction of varna and ashrama as per the vedas and shastras. This fact is described in detail in the vedic literature.

This has to be kept in mind – We are definitely authorized to refine and implement the worldly and otherworldly upliftment means like agriculture, agnihotra, etc, seen and used by the Tattvadarshi Maha Rishis and Munis but abandoning the eternal science related to education, defence, agriculture, building, commerce, service, yajna, charity, penance, fasting and devarchana, etc., and taking support of new innovations and experiments can only pave the path of destruction instead of development.

One who follows the remedies suggested by those ancient vedic sages with full devotion, even at this point of time, easily achieves the desired results. However, there is repeated failure for the ignorant person who disrespects them and resorts to using his own imaginary measures.

Therefore, the process of understanding and implementing the Sanatan Vedic Arya tradition of agriculture, water resources, food, clothing, housing, education, health, transportation, festivals, defence, service, justice, marriage etc. according to the desha [loosely translated to country], time and situation is all beneficial and pleasurable.

Saṃskr̥ta words in context: (1) Satchitananda (Sat-Chita-Ānaṅda)- A compound word, meaning “truth-consciousness-bliss”.
(2) Ashrama (Āśhrama) – Stages of life according to scriptures: brahmacharya, grihastha,vanaprastha, sannyasa.

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